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अवधूत अवतार की कथा

अवधूत अवतार का महत्व:-

हर अवतार से शिव भक्तों को नया ज्ञान ,एवं नई दिशा मिलती है । इस अवतार में भगवान शिव ने वैराग्य और संन्यास का सर्वोच्च रूप धारण किया है। यह अवतार भगवान शिव के साधकों के लिए एक नई आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान करता है। अवधूत का शाब्दिक अर्थ होता है  सांसारिक मोह माया से परे होना। संसार के किसी भी नियम का और बंधन का उसे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना। 


यह अवतार  भगवान शिव ने देवराज इंद्र के घमंड को दूर करने के लिए ,एवं उनके माध्यम से शिव भक्तों को शिक्षा देने के लिए ग्रहण किया था।

भगवान शिव की अवधूत अवतार की कथा:-


एक समय की बात है, जब गुरु बहस्पति और देवराज इंद्र भगवान शिव के दर्शन करने हेतु कैलाश जा  रहे थे। उन लोगों  की यात्रा को देखकर ,भगवान शिव जो कि नाना प्रकारकी लीलाएं करने में बहुत सुख महसूस करते हैं।


और लीला प्रेमी होने के  साथ - साथ में भक्तों को ज्ञान प्रदान करने ,वर देने, एवं अहंकार को दूर करने के लिए प्रभु हमेशा कोई न कोई लीला करते रहते हैं।



अवधूत वेष :-

 

इस प्रकार लीला करने के लिए ,एवं देवराज इंद्र की परीक्षा करने के लिए और उनके अहंकार का दमन करने के लिए भगवान शिव ने एक तेजस्वी अवधूत का रूप बनाया।
और जहां से इंद्र कैलाश पर्वत जा रहे थे ,बीच मार्ग में खड़े हो गए। 

इंद्र द्वारा अवधूत का अपमान :-


देवराज इंद्र ,देवगुरु बृहस्पति ने  मार्ग में देखा कि एक अवधूत  उनके मार्ग को रोक कर खड़ा है।

यह देखकर इंद्र अत्यंत कुपित हुए उन्होंने अवधूत से कहा ,तुम कौन हो ?और हमारे मार्ग में क्यों खड़े हो? हमारे बारे में नहीं जानते कि मैं कौन हूं ?

देवराज इंद्र ने कहा कि मार्ग से हट जाओ ,हमेंजाने का रास्ता दो!

भगवान शिव बोले कि  ठीक है ,मैं बीच मार्ग में खड़ा हूं ,तो आप बगल में से चले जाएं ,इतना सुनकर देवराज इंद्र का क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ गया।

उन्होंने कहा तुम नहीं जानते ,मैं देवताओं का राजा इंद्र हूं। और अभी मैं  तुम पर अपने व्रज से प्रहार करता हूं ।यह कहकर जैसे ही उन्होंने वज्र का प्रहार करना चाहा! 


वज्र का स्तंभित  होना :-



जैसे ही इद्र ने भगवान अवधूत के ऊपर वज्र का प्रहार करना चाहा, तुरंत भगवान शिव ने उसे स्तंभित कर दिया।
देवराज  इंद्र को बड़ी हैरानी हुई ,उनका हाथ जकड़ गया और शरीर को को  इंच मात्र भी हिला नहीं पाए।


भगवान शिव के नेत्रों से  क्रोधाग्नी का प्रकट होना:-

देवराज इंद्र का दुस्साहस देखकर  शिव जी के नेत्रों से  क्रोधाग्नी प्रकट हो गई। जिसके  द्वारा देवराज इन्द्र एवं गुरु बहस्पति के शरीर जलने लगे ।


इस प्रकार के अद्भुत पराक्रम को देखकर गुरु बृहस्पति बोले कि  यह तो भगवान शिवजी के अतिरिक्त कोई और हो ही नहीं सकता, उन्होंने देवराज इंद्र को समझाया , कि यह अवधूत वेषधारी भगवान शिव है। 

देवराज के द्वारा शिव जी से क्षमा मांगना :-



यह सुनकर देवराज इंद्र भगवान शिव के चरणों में गिर पड़े
और कहने लगे हे पभु, मैं आपको पहचान नहीं पाया, हमें माफ कर दीजिए।


देवेंद्र की विनती सुनकर भक्त वत्सल भगवान शिव प्रसन्न हो गए, तब उन्होंने कहा  इंद्र मैंने केवल  तुम्हारे अहंकार को तोड़ने के लिए  ही इस वेष को   धारण किया था ।


इस पर देवगुरु बृहस्पति ने  कहा हे पभु,  इस विचित्र अग्नि से हम लोगों का शरीर जल रहा है। तब भगवान शिव बोले  कि इस अग्नि को देवता सहन नहीं कर पाएंगे ।


तब बृहस्पति और इंद्र की प्रार्थना सुनकर भगवान शिव ने अपने तेज को अपने हाथों में  समेट लिया और क्षार समुद्र में फेंक दिया ।
समुद्र  में ही उस अग्नि ने एक बालक का रूप धारण कर लिया और वह  बाद में महाशक्तिशाली बना।
उसकी शक्ति अपार थी। एवं उसका वध भी भगवान शिव के द्वारा   हुआ।

डिस्क्लेमर:-

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