"अवधूत अवतार: भगवान शिव की लीला जो अहंकार को कर दे भस्म"
अवधूत अवतार की कथा
अवधूत अवतार का महत्व:-
भगवान शिव सृष्टि के आदि स्त्रोत, योगियों के अधिपति, और समस्त भौतिक मोह माया से परे परब्रह्म है । उनके विभिन्न अवतारों में से एक रुप ऐसा भी है जो साधारण समझ से परे
है।-अवधूत अवतार
यह अवतार योगेश्वर शिव ने देवराज इंद्र के घमंड को दूर करने के लिए ,एवं उनके माध्यम से शिव भक्तों को योग ध्यान,और समाधि की शिक्षा देने के लिए ग्रहण किया था।
क्या है अवधूत का
अर्थ?
"अवधूत"
शब्द का अर्थ होता है — जो संसारिक नियमों, बंधनों और मोह से ऊपर उठ चुका हो। ऐसा
व्यक्ति या रूप जिसे किसी नियम, परंपरा या मर्यादा की परवाह नहीं — क्योंकि वह
स्वयं नियमों के पार, परम सत्य में स्थित होता है।
भगवान शिव का अवधूत
अवतार क्यों हुआ?
इस अवतार का मुख्य
उद्देश्य था — देवराज इंद्र के अहंकार का विनाश और उनके माध्यम से समस्त भक्तों को
एक गूढ़ आध्यात्मिक संदेश देना।
भगवान शिव की अवधूत अवतार की कथा:-
भगवान शिव लीला प्रेमी होने के साथ - साथ में भक्तों को शिव तत्व ज्ञान प्रदान करने ,वर देने, एवं अहंकार को दूर करने के लिए प्रभु हमेशा कोई न कोई शिव लीला करते रहते हैं।
कथा: जब इंद्र का अभिमान टूटा
एक बार की बात है — देवगुरु बृहस्पति और देवराज इंद्र भगवान
शिव के दर्शन हेतु कैलाश पर्वत की ओर जा रहे थे। मार्ग में एक विचित्र सन्यासी,
जटाजूटधारी, भस्मविभूषित, पूर्ण वैराग्य स्वरूप पुरुष खड़ा मिला।
वह कोई और नहीं, स्वयं महादेव अवधूत वेष में थे — जिन्होंने
लीला रचने हेतु देवराज इंद्र की परीक्षा का निश्चय किया।
इंद्र का अपमानजनक व्यवहार
इंद्र ने उस सन्यासी से कुपित होकर कहा:
"तू हमारे मार्ग में क्यों खड़ा है? क्या नहीं जानता मैं कौन हूं?"
अवधूत शिव ने विनम्रता से उत्तर दिया:
"मैं बीच मार्ग में हूं तो आप बगल से निकल
जाइए।"
यह सुनकर इंद्र और भी क्रोधित हो गए और वज्र से प्रहार करने को
उद्यत हो गए।
वज्र का स्तंभित होना
जैसे ही इंद्र ने वज्र उठाया, वह उसी क्षण शिव के तेज से
स्तंभित हो गया। उनका हाथ जकड़ गया, शरीर हिल नहीं पाया। यह देख देवगुरु बृहस्पति
चकित रह गए और उन्होंने तुरंत इंद्र को सावधान किया:
"हे इंद्र! यह कोई साधारण सन्यासी नहीं, यह स्वयं भगवान शिव हैं।"
शिव की क्रोधाग्नि और इंद्र की क्षमा याचना
शिव के नेत्रों से क्रोधाग्नि प्रकट हुई जिससे इंद्र और
बृहस्पति तपने लगे। भयभीत होकर इंद्र भगवान शिव के चरणों में गिर पड़े और बोले:
"हे प्रभु! मैंने आपको पहचाना नहीं। क्षमा
करें।"
भगवान शिव ने मुस्कुराते हुए कहा:
"इंद्र! यह रूप मैंने तुम्हारे अहंकार को मिटाने के
लिए धारण किया था।"
तेज का सृष्टि में विलय
देवताओं की प्रार्थना पर भगवान शिव ने अपनी क्रोधाग्नि को
संचित किया और उसे समुद्र में प्रवाहित कर दिया। वहाँ उस तेज से एक महान शक्ति का
जन्म हुआ — जो भविष्य में दैत्य स्वरूप बना और शिव द्वारा ही नष्ट हुआ।
अवधूत अवतार का आध्यात्मिक संदेश
यह अवतार शिव भक्तों को सिखाता है कि:
अहंकार चाहे इंद्र जैसा क्यों न हो, शिव के आगे टिक नहीं सकता।
वैराग्य और विनम्रता ही सच्चे साधक के गुण हैं।
भगवान शिव भक्तवत्सल हैं, परंतु अहंकार सहन नहीं करते।
अवधूत अवतार भगवान शिव की उन लीलाओं में से एक है जो सतही
नहीं, बल्कि अंतरतम को झकझोर देने वाली है। यह अवतार हमें जीवन में संयम, त्याग,
अहंकार के त्याग और सच्चे वैराग्य का पाठ पढ़ाता है।
निष्कर्ष (Blog Conclusion)
शिव के अवधूत स्वरूप
से हम यह सीख सकते हैं कि सत्य पथ पर चलने वाला साधक चाहे किसी भी परिस्थिति में
हो, वह सदा परमात्मा के निकट होता है। यही रूप, यही कथा हमें बार-बार याद दिलाती
है कि त्याग और आत्मबोध ही शिवत्व की वास्तविक सीढ़ी है।
"शिव का अवधूत स्वरूप न केवल सनातन ज्ञान की पराकाष्ठा है,
अपितु यह दर्शाता है कि जब आत्मा पूर्ण रूप से शरीर, समाज और सीमा की मर्यादाओं से
मुक्त हो जाती है, तब वह शिवस्वरूप को प्राप्त करती है। अवधूत रूप में शिव मानव को
यही संकेत देते हैं — कि सत्य की खोज भीतर है, बाह्य आडंबरों में नहीं। यह अवतार
हमें जागृत करता है, भीतर के मौन की ओर, जहाँ शिव स्वयं वास करते हैं।"
डिस्क्लेमर:-
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