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नारदजी का अभिमान
एक बार देवर्षि नारद तपस्या करने के लिए एक रमणीक एकांत स्थान पर गए, यहां पहुंचने पर उन्हें एक अद्भुत शांति का अनुभव हुआ, नारद जी ने इस स्थान पर आकर सोचा कि यहां अद्भुत शांति है।
और यह तप के लिए सबसे अच्छा स्थान है।यह सोचकर देवर्षी नारद तपस्या के लिए बैठ गये। उन्हें तपस्या करते हुए देख देवराज इन्द्र घबरा गए, ऐसा केवल नारद जी की तपस्या से देवराज में घबराहट हो, यह पहली बार नहीं था।
बल्कि जब भी कोई व्यक्ति तप करता है तो, देवराज इंद्र को यह लगता है कि अपनी तपस्या के बल पर यह मेरा पद ले लेगा।
मेरे हाथ से सिंहासन चला जाएगा, इसी सोच के साथ उन्होंने कामदेव को, नारद जी की तपस्या भंग करने के लिये भेजा।
कामदेव अपनी सेना के साथ गए ,लेकिन तपस्या को भंग नहीं कर पाये, और कहा हे देवराज, मैं देवर्षि नारद की तपस्या को भंग नहीं कर पाया।
नारद जी की तपस्या क्यों कामदेव भंग नहीं कर पाये? इसका कारण:-
क्योंकि वही पर देवाधिदेव महादेव ने तपस्या की थी ।एवं जब कामदेव देवाधिदेव महादेव की तपस्या को भंग करने आये, तो प्रभु ने क्रोध मे आकर अपना तीसरा नेत्र खोला, और कामदेव वही भस्म हो गये।उसी के प्रभाव के कारण से नारद जी की तपस्या को कामदेव भंग नहीं कर पाये । लेकिन उस स्थान के प्रभाव को नारद जी नहीं जानते थे।इसलिए अहंकार के वशीभूत होकर, वह अपने पिता ब्रह्मा जी के पास पहुंचे।
ब्रह्मा जी के द्वारा देवर्षि नारद को समझाना:-
भगवान शिव जी के सदृश्य मैं कामदेव पर विजय प्राप्त कर चुका हूं।
इस पर ब्रह्माजी ने कहा कि यह बात आपने मुझसे तो कहा लेकिन किसी और से नहीं कहना, लेकिन नारद जी अहंकार के वशीभूत होकर अपने पिता ब्रह्मा जी के सुझाव को अनदेखा कर, इसके बाद शिव लोक मे भगवान शिव जी के पास गए, और कहने लगे देवाधिदेव महादेव मैंने आज काम पर विजय प्राप्त कर ली है।
और मैं कामविजयी बन गया हूं। यह सुनकर भगवान शिव ने सोचा कि नारद को अहंकार हो गया, इसलिए अहंकार को दूर करना चाहिए ।
तब उन्होंने कहा हे नारद, यह बात तुम मेरे से कह गए, लेकिन यह बात किसी और को मत बताना, एवं इस बात का और ध्यान रखना कि विष्णु जी को भूल से भी कभी, मत बताना।
नारद जी ने कहा कि ठीक है प्रभु, मैं किसी से भी नहीं बताऊगा, लेकिन नारद जी से रहा नहीं गया और वह विष्णु लोक की ओर चले गए।
विष्णु लोक की ओर प्रस्थान :
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वहाँ पहुँच कर उन्होंने भगवान विष्णु को साष्टांग प्रणाम किया, और कहा हे प्रभु, मैंने आपकी कृपा से काम पर विजय प्राप्त की है।
यह सुनकर भगवान विष्णु मुस्कुरा कर बोले, हां नारद अब तुम कामजयी हो गए हो, लेकिन मन ही मन सोचे नारद मेरा प्रिय भक्त है, और इसे अहंकार शोभा नहीं देता है, भक्त वत्सल भगवान विष्णु अपने भक्त के कल्याण के लिए कुछ सोचते हैं।
उन्होंने कहा कि हे नारद अब तुम जाओ, और आपने बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली है। फिर नारद भगवान विष्णु को प्रणाम कर चल दिए ।
भगवान विष्णु की माया :-
तभी ,भगवान विष्णु ने अपनी माया से अत्यंत सुंदर माया नगरी का निर्माण किया। उन्होंने करीब सौ योजन का एक बहुत सुंदर नगर बसाया ।उस नगर की शोभा के आगे देवराज इंद्र का स्वर्ग फीका लग रहा था।
देवर्षि नारद का सेवा सत्कार
अलकापुरी की सुंदरता उसके आगे कुछ भी नहीं थी।तभी नारद जी ने देखा ,कि एक बहुत ही सुंदर नगर है, उनकी इच्छा हुई कि ,नगर में प्रवेश कर लिया जाए।
माया के वशीभूत होकर नारद जी ,नगर में प्रवेश कर गए। वहां के राजा को मालूम पड़ा कि, देवर्षि नारद आये है, तो वह अपने पूरे परिवार सहित नारद जी की सेवा सत्कार के लिए पहुंच गए।
नारदजी की सेवा सत्कार के बाद जब नारद जी की नजर राजा की पुत्री पर पड़ी , जो कि अनिंद्ध सौंदर्य की स्वामिनी थी, उसे देखकर नारद जी मोहित हो गए, तभी राजा, नारद जी से बोले कि ,मैं अपनी कन्या के लिए स्वयंवर रचना चाहता हूं, कृपया आप मेरी कन्या का हाथ देखकर बताएं ,कि इसके हाथ में कैसा वर है ?
नारद जी द्वारा कन्या का भविष्य देखना
नारदजी ने उस कन्या का हाथ देखकर, राजा को बताया कि, तुम्हारी लड़की सर्वगुण संपन्न है। इसके लिए जो वर ब्रह्म जी ने लिखा है, वह भगवान विष्णु के समान है। यह सुन कर राजा बहुत प्रसन्न हुआ । कि मेरी पुत्री का विवाह,भगवान विष्णु के समान वर से होगा।
तो राजा ने कहा कि हे ॠषि श्रेष्ठ, से शुभ से शुभ मुहूर्त देखकर बताइये, मैं इस कन्या का विवाह अति शीघ्र करना चाहता हूं।
स्वयंवर की घोषणा
नारद जी ने कहा कि कल ही महाराज बहुत ही सुंदर शुभ मुहूर्त है। तब राजा ने उसी समय स्वयंवर की घोषणा कर दी।
देवर्षि नारद के द्वारा विष्णु रूप को पाने की प्रार्थना
स्वयंवर की घोषणा होते ही, नारद जी भगवान विष्णु के पास गए, और उनसे कहने लगे हे प्रभु, मैं आपसे एक विनती करता हूं, कि आप मुझे अपना सुंदर रूप दे दीजिए।
भगवान ने कहा है कि जिससे तुम्हारा कल्याण होगा, मैं वही काम करूंगा जिसे सुनकर नारद जी ही बहुत खुश होकर वापस चले आए।
देवर्षि नारद के अहंकार का दमन
दूसरे दिन देवर्षि नारद जी स्वयंवर के अंदर पहुंचे ,वहां पर उन्होंने देखा कि राजकुमारी हाथों में वरमाला लिए हुए एक-एक राजाओं के समीप से गुजर रही है।
नारद जी ने समझा कि, मैं विष्णु के समान सुंदर हो गया हूं, अब यह राजकुमारी मुझे ही वरमाला पहनायेगी
इसलिए जब राजकुमारी, हर राजा के आगे जाती थी तो नारद जी वहां पहुच जाते थे, लेकिन राजकुमारी उनको अनदेखा कर ,फिर किसी और राजा के आगे बढ़ जाती थी ,राजकुमारी ने देवर्षि नारद जी के गले में हार नहीं पहनाया ,एवं सारे राजाओं को बिना वरमाला पहनाए वापस चली आई
,तब तक राजकुमारी की नजर सामने द्वार पर भगवान विष्णु पर पडी तो राजकुमारी ने वरमाला विष्णु जी के गले में डाल दी, भगवान विष्णु राजकुमारी को लेकर अंतर्धान हो गए।
शिव लीला:-
नारद जी समझ नहीं पाए ,कि जब भगवान विष्णु ने मुझे अपना रूप दे दिया है तो यह राजकुमारी मेरे गले में वरमाला क्यों नहीं डाली थी ।
शिव लीला से भगवान शिव के गण भी स्वयंवर में आए थे। वे नारद जी को देखकर हंसने लगे ,तब नारद जी ने कहा कि तुम मुझे देखकर हंस क्यों रहे हो?
इस पर भगवान शिवजी के गण बोले कि देवर्षि आप अपना चेहरा जा कर देखिए । यह सुनकर देवर्षि नारद जी अपना चेहरा देखने के लिए गए, जब नारद जी ने अपना चेहरा पानी में देखा, तो उन्हें अपना चेहरा बंदर का दिखा, यह देखकर के नारदजी बहुत आग बबूला हो गए,
वह विष्णु लोक गए, वहाँ उन्होंने भगवान विष्णु से कहा कि, आप कितने कपटी हैं, मैं आप का सबसे बड़ा भक्त हूं, लेकिन आप मेरे साथ छल किए, और मेरे साथ बुरा व्यवहार किया।
इसलिए यह कहकर दु:ख से भगवान विष्णु को बहुत बुरा, भला कहा , और कहा कि अब मैं जाता हूं , लेकिन आपको श्राप देता हूं, कि जिस तरह से मैं पत्नी के लिए तड़फ रहा हूँ, उसी तरह आपको भी पत्नी का वियोग सहन करना पड़ेगा।
और मनुष्य के दुःख का अनुभव, मनुष्य के रूप में अवतार लेकर, भोगना पड़ेगा।
उसी घड़ी भगवान विष्णु ने अपनी माया समेट ली। माया के हटते ही नारद जी को ज्ञान हुआ। ओह, मैंने एक स्त्री के मोह में पड़कर ना जाने क्या कर दिया,
नारद जी का समर्पण:-
मैंने अपने भगवान का अपमान किया, इस प्रकार नारद जी बहुत प्रलाप करने लगे, उनके दुःख को देखकर भगवान विष्णु द्रवित हो गए, उन्होंने कहा कि नारद, तुम दुःखी मत हो यह सब मेरी माया थी।
मैंने केवल तुम्हारे लिए अहंकार को तोड़ने के लिए इस पूरी माया को रचा था।
जब नारद जी को सारी बातें समझ में आईं ,तो वो प्रभु के पैर में गिर गएँ। और
श्री मन नारायण का जाप करते हुए वह अपने धाम को लौट गए।
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