Advertisement

Responsive Advertisement

Shiv pujaशिवत्व का चिन्तन

शिव का दृश्य कैसे करें।

चिंता नहीं देखें, अर्थत हम दिन-रात केवल शरीर के सुख के लिए, नाना प्रकार की सामग्री भोग विलास की खरीद लेते हैं।

 मान प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए द्रव्य (रूपये) की आवश्यकता होती है। और यदि मनचाही वस्तुएँ नहीं मिलतीं तो चिंता हो जाती है। यही चिंता नहीं करना है बल्कि चिंतन करना है।

यदि ईश्वर का अवलोकन किया जाए तो हमारा जन्म लेना समझा जा सकता है, (बड़ा भाग मानुष तन पावा) बड़े भाग्य से मनुष्य का शरीर मिला है, जो वैश्विक रूप से भी दुर्लभ है, 

शिव भक्तों को शिव का सानिध्य पाने के लिए अपने मन को, अपने विचार को, शिव के वातावरण में देहाभिमुख से आत्माभिमुख बनाना पडता है।

अर्थात शरीर की चिंता छोड़ दें की गति की चिंता करते हैं। क्योंकि भगवान शिव सूक्ष्म रूप से सभी प्राणियों के हृदय में बसे हुए हैं। इसीलिए उसकी आँखों से दृष्टिगोचर नहीं होते। उन्हें देखने के लिए दिव्य दृष्टि चाहिए।


और यह दिव्य दृष्टि केवल भगवान श्री कृष्ण के पास थी जिससे कि वह साक्षात देवाधिदेव महादेव, भगवानशिव के दर्शन करते थे।





शारीरिक कर्म और मानसिक कर्म:-

प्रभु की दृष्टि में शरीर के साथ-साथ मन का भी निर्मल होना आवश्यक है।

इसके बारे में एक बार  मैने एक साधु ने शिवरात्रि मेले के अवसर पर संक्षेप में सुना था, वही मैं आपके सामने रख रहा हूं।

एक बार की बात है की शिवरात्रि का मेला लगा, तब माता पार्वती जी ने भगवान शिव से पूछा कि हे प्रभु, आज तो शिवरात्रि है।

और आज हमें चलना चाहिए और पता होना चाहिए कि हमारे कौन भक्त आ रहे हैं, तब भगवान शिव बोले कि हे पार्वती, यह जो शिवरात्रि में भक्तों का जमावड़ा देख रहा है, इसमें से केवल कुछ ही भक्त होंगे, बाकी सभी मौज मस्ती के लिए आ गए हैं।

लेकिन पार्वती जी को विश्वास नहीं हुआ तब शिव बोले कि देखो मैं अभी साबित करता हूं, और उन्होंने माया से एक दम्पति (पति और पत्नी) की रचना की पति को अपाहिज के रूप में रचा, और पत्नी को अप्सरा से भी अघिक सुंदर बनाया, एवं दोनों को मेले में स्थित कर दिया।

और फिर पार्वती जी ने कहा कि हे, पार्वती, अब तमाशा देखो, अति सुंदर स्त्री को लोगों ने देखा, तो सब उसे देखने में लग गए।

कई लोगों ने तो प्रस्ताव दे दिया ,अरे , इस अपाहिज के पास क्या है ? हमारे पास आइए हम पूरी सुविधा से आपको समृद्ध कर देंगे। किसी बात की कोई कमी नहीं रहेगी।

इस तरह करते -करते - जहाँ भी वह अतिसुन्दर स्त्री जाती है, लोग उसके पीछे पड़ जाते हैं, मंदिर पर लोग हाथ जोड़कर विनती करते हैं, परन्तु मन में छवि शिव की नहीं, बल्कि वह अति सुंदर की दिखाई देती है।


 जब सभी दर्शन करके चले गए, तो एक युवक आया उसने उस स्त्री को क्षण भर देखा, लेकिन उसे दरकिनार  करके, सर्वप्रथम भगवान शिव को  गंगाजल से स्नान कराया, , गाय का दूध  चढ़ाया, बेलपत्र चढ़ाया,एवं पूरे मनोभाव से उनकी पूजा की, पूजा करने के बाद वह अपने निवास स्थान की ओर चला गया।

 तब भगवान शिव बोले कि पार्वती मेरा यह वास्तविक भक्त है। और वह केवल मेरी पूजा के लिए आया था।

कहने का कथन यह है कि हम ईश्वर को मूर्ख नहीं बना सकते हैं, इसलिए (वाचा, मनसा, कर्मणा) मन, वचन और कर्म से पवित्र होकर भक्ति करते हुए बताए कि हमारी सच्ची भक्ति होगी।

हमारे शरीर से जो भी कर्म होते हैं, वह मनुष्य के कल्याण के लिए होना चाहिए, क्योंकि शिव कल्याणकारी देवता ही जगत के कल्याण के लिए हैं। एवं हमारे मानसिक कर्म विश्व में कल्याण के लिए होना चाहिए।


अर्थात शुभ इच्छा , शुभ कार्य होना चाहिए, शुभ संकल्प होना चाहिए।

तब जाकर सब जगह (सर्वत्र)(शिव का दर्शन) शिवत्व का दर्शन होता है। जब साधक का अहंकार पूर्ण रूप से नष्ट हो जाता है तो वह शिव के दर्शन का अधिकारी होता है। 

और जब साधक के अहंकार का पूर्ण रूप से नाश हो जाता है, तब भी सर्वत्र शिवत्व के दर्शन होते हैं।

अथर्वशिरउपनिषद के अनुसार:-

श्रुतियो का कथन है जिसमें सभी  शयन करते हैं, वह शिव है, वह अद्वैत ज्ञान है, वही निराकार है, वही निर्विकार है, वह निर्गुण ब्रह्म है।

ओम नमः शिवाय मंत्र की महिमा

यदि कोई घोर पापी हो, तों भगवान शिव के ओम नमः शिवाय मंत्र के जाप करने से मुक्त हो सकता है, भगवान शिव का (ओम नमः मनुष्य शिवाय) इस षडक्षर मंत्र के जप से ब्रह्म हत्या के सामान पाप भी नष्ट हो जाते हैं।

और वह जघन्य पापों से मुक्त हो जाता है। ऊँ नमः शिवाय का जाप दिन में 10 बार किए जाने पर मंत्र 1 दिन के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं, और यदि इस मंत्र का जाप जल में  हो जाता है तो सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।


क्योंकि शिव जी का ओम नमः शिवाय मंत्र प्राणियों के सभी अशुभ, पापो का शमन करने वाला है। और इस मंत्र का जाप करने से आपकी सभी मनोकामना पूरी होती है।


और यदि इस मंत्र का दिन-रात जाप किया जाए तो स्वर्ग लोक तक आपको मिल सकता है।

हृदय का शुद्ध होना







शिव का ध्यान हृदय से करना चाहिए, क्योंकि यदि हृदय शुद्ध नहीं है, काम, क्रोध, मद, लोभ, से भरा हुआ  है, तो कभी भी शिव का साक्षात्कार नहीं हो सकता  है।


 इसलिए साधक को इन दुर्गुणों से हमेशा अपने आप को बचाकर दिन प्रतिदिन सद्गुणों की वृद्धि करके अपने हृदय को गंगा जल की तरह निर्मल एवं स्वच्छ रखना चाहिए।



अपने आराध्य भगवान शिव का ध्यान करें, यह बहुत जरूरी है कि शिव पूजा के लिए।

हजारों वर्षों से भगवान शिव की लिंग पूजा  जारी है, हमारे ऋषि, महर्षि, बड़े-बड़े मनस्वी इन लोगों ने साक्षात लिंग के अपने हृदय में दर्शन करके और  शास्त्रों के माध्यम से जन सामान्य को बताया   है।

गीता के नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत :

के आधार पर मानसिक योग्यता ना होना और हमेशा अर्थ और कामिनी से जुड़े रहने के कारण, हमारी आत्मा के भीतर जो शिव स्थित  हैं, और जो हमारे सबसे नजदीक  हैं, वह दृष्टिगोचर नहीं होते हैं।


 इसलिए शुद्ध उपासना का शरण लेकर जब सभी दोष हमसे दूर हो जाते हैं, तब भगवान शिव ग्राह्य हो जाते हैं। 

राम चरित्र मानस के अनुसार

रामचरितमानस के प्रारंभ में तुलसीदास जी ने लिखा है शिव रूप परमात्मा तो सभी प्राणियों के हृदय में स्थित ही है, पर भाव और श्रद्धा रूपी भवानी त्याग, वैराग्य, और विश्वासरूपी शिव की कमी में वह प्रत्यक्ष नहीं होते हैं। 


यहाँ तक देवी सीता जी ने भगवान शिव के धनुष  की सेवा करके, भगवान शिव की कृपा  पाई थी, और उन्हें वर के रूप में प्रभु श्री राम मिले।


रावण, भगवान शिव की भक्ति तो करता था, लेकिन एक बार उसने मंदोदरी से कहा, कि मैं देवी आदिशक्ति के चरणों में 1000 बकरों की बलि देकर देवी माता आदि शक्ति को प्रसन्न करुंगा।


उस समय देवी माता आदिशक्ति ने भगवान शिव से कहा कि हे देव, रावण यह सोचता है कि, मैं एक हजार बकरियों की बलि से प्रसन्न हो जाऊंगी, यह उनकी सबसे बड़ी भूल है, कौन  सी माता अपने बच्चों की बलि से प्रसन्न होती  हैं, मैं तो जगत माता हूं। रावण ने बलि के अर्थ को गलत रूप दिया है।


बलि का मतलब साधक को अपने दुर्गुणो की बलि चढ़ाना अर्थात अपने अंदर जो काम, क्रोध, मद, लोभ, हिंसा, उन्हें निर्मूल नाश करना है।

यहाँ यह दिखाया गया है, शास्त्रों में लिखी गई बातों को सही ढंग से ना समझने के कारण अर्थ का अनर्थ हो जाता है।शास्त्रों में बलि का अर्थ है कि आपके दुर्गुणों को संपूर्ण रूप से दूर करके प्रभु भक्ति में लीन हो जाना चाहिए।

परा भक्ति का परिचय:-


भगवान शिव का सच्चा भक्त शिव में ही मन लगाकर  अपनी इंद्रियों के द्वारा विषयों का भोग ग्रहण करते हुए यह सोचते हैं कि संपूर्ण चराचर जगत जो विशाल है इस सब को वह ईश्वर की माया मानता है।


किसी से न प्रेम रखता है, न ही द्वेष रखता है तथा वह काम क्रोध के बस में भी नहीं रहते हैं। केवल ईश्वर की आराधना करता  है।    थोड़ा सा भी अहंकार नहीं रखता है।  संसार के सभी प्राणी समभाव से देखते हैं ।


यदि तीनों लोकों का राज्य मिल जाए तो भी वह एक क्षण के लिए ईश्वर के चरणों का त्याग नहीं करता है, ऐसे भक्तों के लिए बिना किसी प्रयास के ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है।


 भक्ति का द्वार अमीर गरीब ऊंच-नीच सभी प्रकार के लोगों के लिए चाहे पुण्यात्मा हो चाहे नारी हो, ब्राह्मण हो चांडाल हो, बालक हो, सभी के लिए  भक्ति का मार्ग खुला है ।सभी भक्ति का सहारा लेकर के उस परम पद को पा सकते हैं ।यह  भक्ति स्वर में अनुरक्ति  भक्ति परा भक्ति  कहलाती है।


 ओम नमः शिवाय, ओम नमः शिवाय, ओम नमः शिवाय, ओम नमः शिवाय, ओम नमः शिवाय, हर -हर महादेव- हर -हर महादेव, हर-हर महादेव।




एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ