shiv Katha
गुरु का महत्त्व: भगवान शिव और पार्वती की तपस्या से जुड़ी अद्वितीय कथा।
केवल विश्वास ही पर्याप्त नहीं होता — साधना भी आवश्यक है।
यह सिद्धांत हमें भगवान शिव और माता पार्वती की पौराणिक कथा से सीखने
को मिलता है, जहाँ गुरु का महत्व सर्वोच्च रूप में प्रत्यक्ष होता है।
माता पार्वती की तपस्या और विश्वास
माता पार्वती ने भगवान शिव को अपने पति के रूप में पाने के लिए कठोर
तप किया। वर्षों तक उन्होंने धूप, वर्षा, सर्दी-गर्मी की परवाह किए बिना कठिन
साधना की। उनका विश्वास अडिग था, लेकिन शिव उन्हें स्वीकार नहीं कर रहे थे।
जब माता पार्वती का तप फल नहीं दे रहा था, तब देवर्षि नारद जी ने उन्हें बताया —
"सिर्फ विश्वास ही पर्याप्त नहीं, जब तक किसी योग्य गुरु से
दीक्षा नहीं मिलती, तब तक साधना पूर्ण नहीं मानी जाती।"
गुरु की प्राप्ति और सच्चा मार्गदर्शन
नारद जी के सुझाव पर माता पार्वती ने गुरु रूप में महर्षि अगस्त्य को अपनाया। उनसे दीक्षा लेने के बाद ही उनकी तपस्या को वह शक्ति और दिशा मिली, जिसके परिणामस्वरूप भगवान शिव ने उन्हें पत्नी रूप में स्वीकार किया।
गुरु कौन हैं?
गुरु वह नहीं जो केवल शास्त्र पढ़ा दे, बल्कि वह है जो शिष्य के जीवन
को सत्य की ओर मोड़ दे। एक ऐसा दीपक जो स्वयं जलकर शिष्य को अंधकार से प्रकाश की
ओर ले जाए।
पार्वती की तपस्या और गुरु की भूमिका
देवों की भी गुरु होते हैं। पार्वती ने जब भगवान शिव को पति रूप में
पाने के लिए घोर तप किया, तब उनके भीतर श्रद्धा, धैर्य और पूर्ण समर्पण की भावना
थी। परंतु वह तप तब तक पूर्ण नहीं माना गया जब तक एक सच्चे मार्गदर्शक ने उन्हें
सत्य की दिशा नहीं दिखाई।
गुरु के वचनों से ही शिव का मिलन संभव हुआ
जब गुरु ने पार्वती को शिव तत्व की व्याख्या की, तब उन्होंने न केवल
शिव को जाना, बल्कि स्वयं को भी पहचाना। इसी आत्मबोध से शिव स्वयं प्रकट हुए — और
हुआ वह दिव्य मिलन जिसे 'शिव-पार्वती विवाह' कहते हैं।
गुरु: आत्मा की आँख
गुरु बिना, परमात्मा तक की यात्रा असंभव है। शिव स्वयं कह चुके हैं —
"गुरु के बिना मुझे पाना कठिन ही नहीं, असंभव है।"
शिव और पार्वती का मिलन: गुरु कृपा का फल:
गुरु के मार्गदर्शन और तप के संयोजन से ही वह परम परिणति हुई — शिव और शक्ति का अद्वितीय एकत्व, जो आज हमें "अर्धनारीश्वर" के रूप में दिखाई देता है।
सच्चा गुरु वही है जो केवल ज्ञान नहीं देता, आत्मा की दिशा भी बदल
देता है।
गुरु कौन?
देवता को गुरु की आवश्यकता क्यों?
यह प्रश्न जितना सरल लगता है, उत्तर उतना ही गूढ़ है। जब शिव जैसे
पूर्ण ज्ञानी, त्रिकालदर्शी, योग के अधिपति को भी गुरु की आवश्यकता पड़ी, तो यह
मान लेना चाहिए कि आत्म-यात्रा में ‘गुरु’ कोई सामाजिक औपचारिकता नहीं, बल्कि
आध्यात्मिक अनिवार्यता है।
शिव और उमा की कथा में गुरु का रहस्य
तपस्या और गुरु की दीक्षा
जब शिष्य पूर्ण समर्पण के साथ तप करता है, तब गुरु उसकी परीक्षा नहीं
लेते — वे स्वयं उस तप में उतरते हैं। उमा की साधना में शिव मौन थे, परंतु वे वहाँ
थे। वे निरीक्षण नहीं कर रहे थे, वे प्रतीक्षा कर रहे थे — कि कब यह जीव चेतना की
परिधि को लांघे और अस्तित्व के केंद्र में पहुंचे।
गुरु स्वयं को कब प्रकट करता है?
गुरु तब प्रकट होता है जब शिष्य 'मैं' को विसर्जित कर देता है। जब
‘मैं जानता हूँ’, ‘मैं चाहता हूँ’, ‘मैं योग्य हूँ’ — इन सबका विसर्जन हो जाता है।
उमा का यही समर्पण, यही मौन आग्रह शिव को गुरु बनने हेतु प्रेरित करता है।
आज का सन्दर्भ: क्यों चाहिए हमें गुरुदेव?
आधुनिक युग में ज्ञान सर्वत्र है, पर अनुभव दुर्लभ है। इंटरनेट ज्ञान
देता है, पर अंतःकरण की आँख नहीं खोलता। वहाँ गुरु की आवश्यकता है — जो तुम्हारे
मौन को सुन सके, जो तुम्हारी गति को दिशा दे सके।
निष्कर्ष
गुरु कोई बाहरी सत्ता नहीं, वह भीतर की अग्नि है — जो सही समय पर
प्रकट होती है। शिव ने यह सिखाया कि भले ही तुम ‘महादेव’ हो, पर जब तक गुरु की
दीक्षा नहीं होती, तब तक चेतना की पूर्णता संभव नहीं।
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