ययाति कौन थे
यह प्रसंग (लिंग पुराण के 66वें अध्याय) से लिया गया है ।
इक्ष्वाकु वंश की राजाओं की कथा और वंश का वर्णन
त्रिधन्वा ने देव तण्डी की कृपा से 1000 अश्वमेध यज्ञ को संपन्न किए जिसके परिणाम संदर्भ में सभी विश्व में वह पूज्य हो गए और महान गधिणाप पद को प्राप्त हुए।
उसी के पुत्र राजा त्रय्यारूण थे ।
उनका एक बेटा था जोकि बहुत बलशाली था। जिसका नाम सत्यव्रत था। उसने विदर्भ देश के राजा की पत्नी का अपहरण कर लिया, जिससे उसके पिता दु:खी हो गए और उन्होंने सत्यव्रत को घर से निकाल दिया।
पिता के घर से निकलने के बाद सत्यव्रत अपने पिता से बोला मैं कहाँ रहूँ,?, तब उसके पिता ने कहा, चंडालो के साथ, यह सुन कर के पिता के आदेश को मान कर सत्यव्रत उस नगर से निकल गए।
क्योंकि वह पिता के द्वारा निकाल दिया गया था। तो वह चांडालो के निवास स्थान के निकट रहने लगा,
वशिष्ठ जी के क्रोध के कारण वह पुण्यात्मा राजा सत्यव्रत सारे लोको मे पराक्रमी त्रिशंकु के नाम से प्रसिद्ध हुए।अन्य, तथा वसिष्ठ के निषेध करने पर भी ऐ ईश्वर्यशाली विश्वामित्र ने उन्हें सशरीर स्वर्ग भेजा था।
कैकेय वंश मे उसका सत्यव्रता नामक पत्नी ने हरिश्चंद्र नामक पुत्र को जन्म दिया। हरिश्चंद्र का रोहित नामक था पुत्र और रोहित का हरित था।हरित पुत्र ठीक कहा जाता है कि धूंधू के दो पुत्र उसके पुत्र के रूप में थे। रूचक पुत्र वृक था।विरिक से बाहु का पुत्र सागर हुआ।
ययाति का परिचय-
देवयानी:-
यह कहानी शुरू होती है देव गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और राक्षसराज की पुत्री शर्मिष्ठा से यह दोनों सहेलियां थीं, और आपमें उनका प्रेम और विश्वास था। एक बार की बात है, दोनों सहेलियां वहां पहुंचकर आप खुद को आरंम्भ कर दिया।
और खेलते समय उनका मन हुआ स्नान करने का तो फिर वह सरोवर में स्नान करने लगे, उसी आकाश मार्ग से कोई देवता विचरण कर रहे थे। उन्हें देखकर दोनों शर्म से भर गए, क्योंकि व जल में निर्वस्त्र स्नान कर रही थी। और वह देवता अपने वाहन से जा रहे थे उनको देख यह दोनों शर्मा गई।
और जल्दी से अपने कपड़े बदलते समय जल्दी पहनने में देवयानी के परिधान शर्मिष्ठा ने पहन लिए, जब देवयानी ने देखा तो क्रोध से आग बबूला हो गई।
उसने कहा कि तू राक्षस की बेटी, तेरी हिम्मत कैसे हुई कि मेरे वस्त्र पहन लिए? इस पर शर्मिष्ठा को बहुत क्रोध आया, देवयानी के वस्त्र पहने हुए उसे एक कुएं में धकेल दिया।
राजा ययाति आखेट करने निकले थे। वे कुएं में किसी के कराहने की आवाज सुनते हैं तो वह कुएं के पास गए तो देखें कि एक अत्यंत सुंदर कन्या कुएं के अंदर से पुकार रही है।
देवयानी का पाणिग्रहण:-
उन्होंने कुएँ से देवयानी को निकाला , उन्होंने हाथ को पकड़ कर देवयानी को कुएँ से निकाला ।
देवयानी ने राजा ययाति को बहुत धन्यवाद दिया , हे, राजा आपने कुएं से निकालकर मेरे प्राणों की रक्षा की है, आप सर्वप्रथम पुरुष हैं, जिसने मेरे हाथ को थामा है, इसलिए मैं चाहती हूं कि आप जीवन भर मेरा हाथ थाम कर रखें, हालांकि मैं एक ब्राह्मण हूं बेटी हूँ।
लेकिन मुझे एक श्राप प्राप्त हुआ है जिसके कारण ब्राह्मणों से मेरा विवाह नहीं हो सकता है, इसलिए मेरे भाग्य में आप ही हैं, और मैं आपसे निवेदन करती हूं ,कि आप मुझे स्वीकार करे, राजा ययाति देवयानी की बात सुनकर प्रसन्न हो गये, और उसका यह निवेदन स्वीकार कर लिया।
तो ,ठीक है, मैं तुम्हारे साथ विवाह करूंगा, इसके बाद उसको देवयानी अपने पिता के पास लेकर आई, उन्होंने अपने पिता शुक्राचार्य से यह सब बातें बताईं, कि किस तरह से शर्मिष्ठा ने उन्हें कुएं में धकेल दिया था।
दैत्य गुरु शुक्राचार्य की क्रोध :-
यह सब सुनकर शुक्राचार्य को बहुत क्रोधित हुए एवं राक्षसों से उनका नाता टूट गया, जब राक्षसराज को यह सब मालूम पड़ा तो वह गिडगिडाते हुए शुक्राचार्य जी के पास गए, कहें प्रभु आपने हम लोगों से नाता तोड़ दिया, तो हम लोगो का राज्य कैसे चलेगा?
तो शुक्राचार्य ने कहा कि मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन अगर मेरी बेटी देवयानी को आप मना लेगे, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी।
शर्मिष्ठा की दासी बनना:-
इस पर राक्षसो के राजा देवयानी के पास गए और उनसे लगे अनुनय, विनय करने, उनके निवेदन पर देवयानी बोली कि, शर्मिष्ठा मुझे दासी के रूप में चाहिए।
इस पर उसके पिता ने हार मानकर शर्मिष्ठा से कहा , तो शर्मिष्ठा ने राज्य की भलाई के लिए शर्त स्वीकार कर ली।
जब देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ हुआ तो शर्मिष्ठा भी दासी बनकर के राजा के महल में गई। कुछ दिनों के देवयानी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
तब शर्मिष्ठा ने ययाति से कह कि मैं भी तुम्हारे बेटे की मां बनना चाहती हूं।
शर्मिष्ठा का प्रणय निवेदन:-
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यह सुनकर राजा ययाति ने शर्मिष्ठा का प्रणय निवेदन स्वीकार किया। ययाति ने कई वर्षों तक भोग विलास किए लेकिन उनके मन नहीं भरा , शर्मिष्ठा के साथ उनके संबन्ध के बारे में जब देवयानी को पता चला तब वह क्रोध से आगबबूला हो गयी , और अपने पिता शुक्राचार्य के पास जाकर सारा वृतांत शुक्राचार्य को बताया।
दैत्य गुरु शुक्राचार्य का श्राप:-
यह वृतांत सुनकर शुक्राचार्य को बहुत क्रोध आया उन्होंने राजा ययाति को बुलाया और क्रोध में आकर श्राप दिया कि तुम वृध हो जाओ तब राजा ययाति ने क्षमा मांगते हुए कहा कि अभी मै देवयानी से पूर्ण रूप से तृप्त नहीं हुआ हँ, एवं आपने मुझे वृध होने का श्राप दे दिया।
यह सुनकर दैत्य गुरु शुक्राचार्य बोले कि राजन यदि आपके पुत्रों में से कोई अपना यौवन आपको दे दे तो आप पुन: जवान हो जाएंगे।
राजा ययाति ने अपने बडे पुत्र से कहा परन्तु उसने मना कर दिया फिर उन्होंने अपने सबसे छोटे पुत्र से कहा उसने कहा कि पिता श्री यदि आप मेरा यौवन लेना चाहते हैं तो मुझे स्वीकार है।
एवं उसने अपना यौवन (जवानी) अपने पिता को संकल्प कर दी उसके यौवन को पाकर राजा ययाति फिर से नवयुवक हो गये और उनका छोटा पुत्र वृध बन गया ।
इस तरह से राजा ययाति ने यौवन को प्राप्त कर कई सुन्दरियों के साथ रमण किया परन्तु उनकी इच्छा तृप्त होने के बजाय और तीव्र हो जाती ।
तब उन्होंने अपने छोटे पुत्र को बुलाया एवं उसका यौवन उसे लौटा दिया और कहा कि इच्छा की पूर्ति करना असंभव है। भोग-विलास से यह तृप्त नहीं होती अपितु और भडक जाती है।
यह समझा कर अपने छोटे पुत्र को अपना राज्य-पाट सौपकर तपस्या करने के लिए वन मे चले गये ।
लिंग पुराण में दर्शाया गया है कि संसार की समस्त वस्तुए पृथ्वी पर जितना सोना है,चांदी है ,हीरे मोती ,ज्वाहारात यहां तक कि पृथ्वी पर जितनी भी स्त्रियां हैं। वह सब किसी एक व्यक्ति की कामना पूरी नहीं कर सकती ।
कामना को इसमें बताया गया है कि जैसे हम हवन में घी डालते हैं। वैसे ही एक इच्छा की पूर्ति करते हैं तभी दूसरी इच्छा उत्पन्न हो जाती है ।
हवन में जितना अधिक धीरे पड़ता है, उतनी ही आग तेज होती जाती है। उसी तरह से किसी भी चीज का जितना अधिक भोग करते है, अधिकतर इच्छाएं बढ़ती जाती हैं।
किसी भी व्यक्ति की पूरी तरह से इच्छा की पूर्ति किसी भी प्रकार से नहीं हो सकती हैं, इसलिए जो अपनी अपनी इच्छाओं को कछुए के समान, जैसे कि (कछुआ अपने सभी अंगों को मनुष्य को सिकोड़ कर अपने शरीर में छिपा लेता है। उसी तरह को) अपनी इन्द्रियों को वश में रखता है,वही ईश्वर की भक्ति की ओर उन्मुख होता है
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