Shiv katha sawan special"रावण और शिवभक्ति की अद्भुत कथा"
शिवभक्त रावण — आत्मलिंग की कथा
भक्ति, परीक्षा और सीख —
यह कथा रावण की भक्ति, उसकी परीक्षा और उससे मिलने वाला पाठ है — पारंपरिक लोककथाओं के आधार पर संक्षेप में प्रस्तुत।
प्रारम्भ — भूल और संकल्प
रावण कैलास से भगवान शिव का चंद्रहास लेकर लौटा, पर उसकी माता कैकसी ने हठ से कहा कि उन्हें स्वयं शिव चाहिए थे — केवल शस्त्र नहीं। यह शब्द रावण को अंदर तक झकझोर गया और उसने प्रण किया कि वह अगली बार शिव को स्वयं लाएगा।
तपस्या और अद्भुत भक्ति
रावण ने कैलास पर कठोर तप किया। वर्षों तक उसने निरंतर साधना की — कहा जाता है उसने अत्यंत कठिन तप के रूपों में आंतों से वीणा बनाई और 'ॐ नमः शिवाय' का जप किया। उसकी भक्ति देख माता पार्वती ने कहा कि अब उसे दर्शन दिए जाएँ।
दर्शन, इच्छा और चेतावनी
भगवान शिव माता पार्वती के साथ प्रकट हुए। शिव ने पूछा — वर क्या चाहोगे? रावण ने कहा कि वे स्वयं लंका चलें। शिव ने वरदान दिया पर चेतावनी भी दी — आत्मलिंग को भूमि से छूने न देना; यदि भूमि पर रखा गया तो वहीँ स्थायी हो जाएगा।
परीक्षा — गणेशजी की चतुरता और आत्मलिंग का प्रतिष्ठापन
रास्ते में देवताओं ने योजना बनाईं। गणेशजी ने बाल-रूप धारण कर रावण के मार्ग में आए। संध्या-वंदन के कारण रावण को रुकना पड़ा और उसने आत्मलिंग गणेश को सौंप दिया। गणेशजी ने परिस्थितिजन्य प्रेरणा से आत्मलिंग को धरती पर रख दिया — और वह वहीं स्थिर हो गया।
निष्कर्ष — भक्ति के साथ विवेक
रावण ने उसे उठाने का अनगिनत प्रयास किया, पर आत्मलिंग अडिग रहा। इस प्रसंग से स्पष्ट होता है कि भक्ति महान है पर उसमें विनम्रता और विवेक भी आवश्यक हैं; वरदान मिलने के बाद समझदारी न रख पाना भी बड़े नुकसान का कारण बन सकता है।
हमने यहाँ उस संस्करण का अनुसरण किया है जिसमें गणेश जी का रूपांतरण वर्णित है, परंतु पाठकों को अवगत कराना आवश्यक है कि यह भिन्नता पुराणों के विभिन्न संस्करणों के कारण है। दोनों ही कथाएं अपने-अपने संदर्भ में धार्मिक रूप से मान्य हैं।
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