रावण एवं कुंभकरण की उत्पत्ति: नारद मुनि के श्राप की रहस्यमयी कथा
रावण एवं कुंभकरण की उत्पत्ति: नारद मुनि के श्राप की रहस्यमयी कथा
---
ब्रह्मर्षि नारद जी का पाश्चाताप
नारद मुनि जब भगवान विष्णु की माया से मोहित होकर मोह में पड़ गए, तब उन्होंने स्वयं ही भगवान को श्राप दे दिया। जब मोह भंग हुआ, तो उन्होंने क्षमा याचना की:
> “हे प्रभु! आपकी माया के वशीभूत होकर मैं अपराध कर बैठा हूं, कृपया क्षमा करें।”
भगवान विष्णु ने स्नेहपूर्वक उत्तर दिया:
> “हे नारद, तुम्हारे श्राप में भी कल्याण निहित है। अब संदेह त्यागकर शिवजी का ध्यान करो।”
---
नारद मुनि का शिवलिंगों का दर्शन और काशी यात्रा
विष्णु जी के निर्देश पर नारद जी पृथ्वीलोक आए और अनेक शिवलिंगों के दर्शन किए। वे मोक्षदायिनी नगरी काशी पहुंचे और भगवान विश्वनाथ के चरणों में नतमस्तक हुए। वहाँ से लौटते समय उन्हें एक अद्भुत अनुभव प्राप्त हुआ।
---
शिव गणों से भेंट और श्राप का रहस्य
स्वर्ग लौटते समय उन्हें भगवान शिव के दो गण मिले। वे बोले:
> “हे ब्रह्मर्षि, आपने हमें श्राप दिया था। परंतु हम तो शिव माया से मोहित थे। कृपा करें।”
नारद जी ने उत्तर दिया:
> “अब मैं शांतचित हूं, लेकिन श्राप को टाल नहीं सकता। हां, तुम महान ऋषि विश्वर्वा के पुत्र बनोगे। तुम रावण और कुंभकरण कहलाओगे। तीनों लोकों में तुम्हारा पराक्रम छा जाएगा।”
---
रावण और कुंभकरण: शिवभक्ति और मोक्ष की ओर यात्रा
नारदजी के श्राप से रावण और कुंभकरण का जन्म हुआ। वे केवल राक्षस नहीं थे, बल्कि महान शिवभक्त भी थे। अंततः भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम के हाथों उनकी मुक्ति हुई और वे पुनः शिवलोक को प्राप्त हुए।
रावण केवल अपनी भक्ति के लिए ही नहीं, अपितु अपने अतुल पराक्रम एवं विद्वता के लिए भी प्रसिद्ध हैं।
---
यह कथा क्यों महत्वपूर्ण है?
यह कथा केवल पौराणिक रहस्य नहीं, बल्कि रावण के आध्यात्मिक पक्ष को उजागर करती है — किस प्रकार एक राक्षस होते हुए भी उसका भगवान शिव से गहरा संबंध था।
भगवान शिव ऐसे ही रावण पर प्रसन्न नहीं हुए थे, बल्कि रावण की परम भक्ति और अपने शीश को समर्पित कर देने जैसे त्याग से प्रसन्न हुए। यह भक्ति की चरम सीमा को दर्शाता है।
यह दर्शाता है कि माया, पाप और श्राप भी मोक्ष के साधन बन सकते हैं, यदि भक्त का अंतर्मन शिवभक्ति में लीन हो।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
Thanks for feedback