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भगवान शिव के कंठ का दर्शन एवं शैलाद पुत्र नंदी को समझाना

भगवान शिव में लगातार मन लगाये रहने एवं  मन को एकाग्र करके, सच्चे मन से हृदय में प्रभु का ध्यान करने के बाद कई  वर्षों के पश्चात   ,प्रभु के  केवल कंठ के दर्शन होते हैं।

उस दर्शन की छवि अवर्णनीय है । क्षण मात्र के लिए ही  जब आपकी भक्ति, आपका प्रेम, आपका विश्वास ,आपका संकल्प, यह चारों एक साथ समान रूप से मिलकर के प्रभु के चरणों का ध्यान करते हैं।


तो प्रभु के कंठ के दर्शन होते हैं, प्रभु के कंठ का अद्भुत दर्शन है , जो वाणी से परे  है।प्रभु के कंठ की अद्भुत छटा निराली है, कभी भक्तों का  भाग्य उदय हो, तो उनके कंठ का दर्शन भी कर सकते हैं।



प्रयागराज में महा यज्ञ का आयोजन:-

ब्रह्मा जी के द्वारा नारद जी  को उपदेश देना:-

ब्रह्मा जी नारद  जी से बोले हे ,नारद,
बहुत समय पहले की बात है , प्रयागराज में सारे ऋषि, महर्षि,एवं देवता एक विशेष यज्ञ के समापन के लिए वहां पर एकत्रित हुए ,उसमे  बड़े-बड़े सिद्ध, मुनि, ऋषि ,महर्षि, एवं ब्रह्मावेत्ता  ज्ञानी भी आए हुए थे।

तथा मैं भी,तभी वहां जहां पहुंचा, मुझे वहां देख करके सभी लोगों ने मेरा  अभिवादन किया, उसके पश्चात  अकस्मात घूमते हुए देवाधिदेव महादेव  भी उस यज्ञ में शामिल हुए  उनका  वहां उपस्थित सभी देवताओं ने ऋषि, महर्षियों, ने खड़े होकर के स्वागत किया।

उनके आसन ग्रहण करने के  कुछ  समय बाद मेरे पुत्र दक्ष प्रजापति भी उसे स्थान पर पधारे दक्ष प्रजापति को आया देखकर  सारे लोगों ने उनका खडे होकर   स्वागत किया,  लेकिन भगवान शिव अपने स्थान पर ही बैठे रहे, उन्होंने दक्ष प्रजापति का स्वागत नहीं किया, यह देखकर के दक्ष प्रजापति को बड़ा गुस्सा आया एवं उन्होंने उच्च स्वर में भगवान  भगवान शिव की निंदा करते हुए शिव गणों को श्राप दे दिया।

शैलाद पुत्र नंदी के द्वारा दक्ष प्रजापति को श्राप देना:-

दक्ष प्रजापति के द्वारा प्रभु का किया हुआ अपमान शैलाद पुत्र  नंदी को सहन नहीं हुआ ,उन्होंने कहा अरे! मूर्ख ब्राह्मणो (क्योंकि दक्ष प्रजापति के अपमान करने के साथ-साथ भृगु आदि ब्राह्मणों ने भी दक्ष प्रजापति का साथ  दिया था) ।इसीलिए नंदी  क्रोधित हो गए, और उन्होंने ब्राह्मणों को भी श्राप दिया । तथा दक्ष प्रजापति से बोले रे मूढ !तूने शिव तत्व को ना जानते हुए भी भगवान शिव की निंदा  की है तेरा या चमकदार मुख बकरे का मुंह हो जाए,तेरी कांति 
निस्तेज  हो जाए इस प्रकार जब वह श्राप दे रहे थे, तभी भगवान शिव ने उन्हें  रोक दिया ।

भगवान शिव का श्राप से परे होना:-

जब  देवाधिदेव महादेव ने नंदी को श्राप देते हुए देखा, तो  उन्होंने कहा हे, शैलाद पुत्र  आप तो बहुत ज्ञानी हैं। आप अपना विवेक क्यों खो बैठे? आपने ब्राह्मणों को  भी श्राप दे दिया।

क्योंकि किसी के भी श्राप का  मेरे ऊपर असर नहीं पड़ता है ।क्योंकि मैं ही यज्ञ हूं , मैं ही यजमान हूं ,मैं ही यज्ञ का भोक्ता हूं ,मै ही यज्ञ की अग्नि हूं।

 इस तत्व को जानते हुए भी आपको ,इस तरह से ब्राह्मणों को श्राप नहीं देना चाहिए यह सब समझा करके भगवान शिव ने नंदीश्वर  को शान्त  किया ।


और अपने गणों  के साथ कैलाश पर्वत पर लौट आए। इधर दक्ष प्रजापति भी अपने गृह वापस लौट आए। लेकिन इस घटना के बाद उनका भगवान शिव के प्रति द्वेष और बढ़ गया और हमेशा शिव के विरोध में ही सोचने लगे।

देवी सती का आत्मदाह:-

आगे यही उनका शिव जी के प्रति द्वेष  दिन- प्रतिदिन बढता चला गया,  परिणाम स्वरूप जब दक्ष प्रजापति ने एक यज्ञ का आयोजन किया ,तो उसमें उन्होंने सारे देवताओं का आमंत्रित किया ,परंतु  देवाधिदेव  महादेव को जानबूझकर  आमंत्रित नहीं किया।


उस समय भगवान भोलेनाथ के साथ सती कैलाश पर्वत पर बैठी हुई थी ।उसी समय आकाश मार्ग से विभिन्न प्रकार के रंग बिरंगे परिधानों  से एवं आभूषणों से सुसज्जित देवताओं को अपने-अपनी वाहनों पर जाते हुए देखा, तो उनसे  रहा नहीं गया, आखिरकार देवराज इंद्र से पूछ लिया,


कि आप लोग इतने सज धज  करके कहां जा रहे हैं? इस पर देवता बोले हे देवी सती ,क्या आपको नहीं मालूम? हम लोग सभी देवता आपके पिता श्री के द्वारा एक यज्ञ का आयोजन किया गया है उसी में भाग लेने के लिए जा रहे हैं।

यह सुनकर देवी सती का मन विचलित हो गया, और वह भी अपने पिता के घर जाने के लिए उत्सुक  हो गई उन्होंने  देवधिदेव महादेव के पास जाकर  हाथ जोड़कर विनती की हे प्रभु ,मेरे पिता एक महान यज्ञ कर रहे हैं, कृपया आप भी चलिए ।


तब देवाधिदेव महादेव बोले हे सती ,यदि तुम्हारे पिता ने हमें आमंत्रित किया होता ,तो मैं जरूर चलता परंतु तुम्हारे पिता ने मुझे आमंत्रित नहीं किया है, इसलिए बिना आमंत्रण के वहां जाना उचित नहीं है।

लेकिन देवी सती के जिद करने पर भोलेनाथ बोले  कि देवी मैं तो किसी कीमत पर नहीं जाऊँगा,लेकिन आपको जाना हो तो आप जा सकती हैं।

भगवान शिव की अनुमति पाकर  देवी सती  दक्ष प्रजापति के यज्ञ में जाती हैं ।और जब भगवान शिव को यज्ञ का प्रथम भाग नहीं मिलता है, तो  वह यह देखकर  बहुत  क्रोधित हो जाती है ।


और कहती है कि जो साक्षात परमेश्वर है, जो परम ब्रह्म  है। उनका इस तरह अपमान ,और उस अपमान  को सहन ना करते हुए देवी सती  स्वयं योगाग्नि के द्वारा आत्मदाह  कर लेती है।


डिस्क्लेमर:-

इस लेख में दी गई जानकारी /सामग्री/गणना की प्रमाणिकता/या प्रमाणिकता की पहचान नहीं है। विभिन्न माध्यमों/ज्योतिषियों/पंचांग/प्रवचनों/धर्मग्रंथों/धर्म ग्रंथों से संदेश द्वारा यह आपको सूचित करता है। हमारा उद्देश्य सिर्फ आपको सूचित करना है। पाठक या उपयोगकर्ता को जानकारी समझ में आ जाती है। इसके अलावा इस लेख के किसी भी तरह से उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं पाठकों या उपयोगकर्ताओं की होगी।

 




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