शिव महात्म्य (महत्व) का वर्णन
शैलाद जी से एक बार सत्नकुमार बोले- हे महामना! आप शिवजी के महत्व का वर्णन करें: आप प्राणियों के आदि नाथ हैं, महान गुणों वाले! आप सर्वज्ञ हैं।।
शैलैद बोले - हे मुने! कई श्रेष्ठ मुनियों ने अनेक प्रकार से अपने शब्दों में शिव महात्म्य का वर्णन किया है, मैं आपको कहता हूँ कि आप एकाग्रचित होकर सुनिये ।
गौतम आदि ॠषियो ने बताया है, कि शिव को सत् और असत् रूप में कहते हैं, और कुछ तो सत्-असत् के पति भी कहते हैं। इस संसार में जो भी सुंदर है, सत्य है, वह शिव रूप ही है ।कहने का आशय यह है कि जब ऋषि गौतम तपस्या कर रहे थे।
तो उन्होंने भगवान शिव को अपने हृदय में देखा, एवं तपोबल से उन्हें जो ज्ञान प्राप्त हुआ, तो उन्होंने कहा कि शिव ही सुन्दर है, और शिव ही सत्य है।
उनकी संपूर्ण प्रकृति के अनुसार वे सत्य हो ,या असत्य हो शिव के ही रूप हैं।
भूतों के उपाय आदि से मुक्त रहने पर वे शिव को वचन और सत कहते हैं। और वह भाव आदि विकार से विहीन रहने पर अव्यक्त तथा असत् कहते हैं।
यहाँ पर भाव का विकार जो लोगों के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि भाव एक विकार होता है। भाव से ही मनुष्य बहुत कुछ करता है ।
इसलिए वह बुरी भावनाओं को प्रकट करता है, वह उचित, अनावश्यक सभी कार्यों को कर सकता है।
इसीलिए भाव को विकार कहा गया है । क्योंकि इस विकार से व्यक्ति के अंदर मोह पैदा होता है। जैसे कि धृतराष्ट्र ,उन्हें पांडव और कौरव दोनों मानते थे। परंतु (ममता) मे पड़कर, उनका भाव विकार के रूप में था।
जिस वजह से उन्होंने केवल दुर्योधन को ही प्राथमिकता दी। किस वजह से पांडवों के मन में यह आया था कि हम इतना सम्मान प्यार देते हैं,लकिन हमें आत्मयिता नहीं प्राप्त होती है। यह केवल धृतराष्ट्र के भाव के विकास से हुआ। जब भाव का उपयोग होता है, तो वह उचित और अनावश्यक नहीं देखता।
वह केवल धूर्त से परिपूर्ण होता है। कहने का अर्थ है कि सारे मनुष्य एक सामान हैं। एवं शिव परमात्मा है। इसलिए शास्त्रों में ऋषि महर्षि ने यह बताया है, कि शिव भाव के विकार से मुक्त है, उनका किसी के प्रति विशेष भाव नहीं है। वह मनुष्य के भाति, नहीं है, वे निर्विकार है
दोनों ही सत्य एवं असत्य शिव के रूप में हैं। शिव के अतिरिक्त कुछ और भी नहीं है। इन दोनों के पति होने के कारण शिव सम्पति कहे जाते हैं।
कुछ तत्व चिंतक मुनियों ने महेश्वर शिव को क्षर-अक्षर रूप तथा क्षर-अक्षर से परे भी कहा है। अव्यक्त को शिव ने कहा है और व्यक्ति को भी शिव ने कहा है। दोनों ही रूप शिव के ही हैं।
कुछ लोगों ने परमात्मा, परम ज्योति स्वरूप भगवान शिव को क्षेत्रज्ञ के रूप में बताया है। इसमें तत्वों को शब्दों से और उनके भोग करने वाले पुरुषों को क्षेत्रों के शब्दों से बताया गया है।
कुछ लोगों ने भगवान शिव को परब्रह्म, शब्द ब्रह्म भी कहा है। ब्रह्मा को प्राणियों के भीतर के शब्द आदि मुख्य विषयों के रूप में और दोनों को चिदानंद के रूप में प्रेषित किया जाता है।
यह दोनों ही ब्रह्म ही महेश्वर परमात्मा शंकर के रूप में हैं। शिव के ऊपर जग में कोई नहीं है।
कुछ लोगों का कथन है कि जगत के पालन करने वाले, महादेव, देव महेश्वरको विद्या और अविद्या के रूप में भी कहते हैं।
श्री, भ्रान्ति, विद्या और प्रकृति यह सभी शिव के श्रेष्ठ रूप हैं। कुछ मुनियों ने योग के द्वारा प्राप्त किया है। कई प्रकार के अर्थों में विज्ञान को भ्रांति कहा जाता है।
वेदांत का सिद्धांत
वेदान्त सिद्धांत के अनुसार शब्द से ही तत्व का साक्षात्कार होता है। उपनिषदों के महावाक्य और भागवत संदर्भ बोधक प्रसंग से भी तत्वों का साक्षात्कार होता है।
जब साक्षात्कार होता है तो कल्पित संसार अमृत सागर में क्षार सागर की तरह प्रतीत होता है। (अमृत सागर काल्पनिक व्याख्या से उत्पन्न होता है । जैसे कि भ्रम में पड़कर रस्सी को सांप समझ लेते हैं, वैसे ही परमानंद मूर्ति शिव तत्व में भवसागर का भ्रम उत्त्पन होता है ।
औषधियों के विचित्र संयोग से प्रयोग से विचित्र प्रकार के प्रमाण का आविर्भाव होता है। वैसे ही नाम एवं मंत्रों का विचित्र प्रयोग करने में विचित्र शक्तियां हैं।
क, ख, ग, घ, अक्षरो के ही जोड़-तोड़ से विचित्र वांग्म्य शास्त्र बन जाता है। राजा, जरा, नदी यह सब शब्द के ऐसे भी जोड़-तोड़ होते हैं, कि जिससे कि घोर से घोर शत्रु भी वश में हो जाता है। हैं।
इसी जुड़े हुए वर्णों से राक्षस,देवता, यक्ष, सर्प, वश में हो जाते हैं। इन विचित्र शब्दों का अर्थ संसार में कुछ भी नहीं है।
बड़े से बड़े देवता ,राक्षस ,सर्प आदि सब वश में हो जाते हैं। दार्शनिक, कवियों ने, बताया है के वर्ण में तो बहुत शक्ति है । इसी तरह अदृश्य विद्या भी भगवान शिव की आराधना, महादेव की आरती नाम में शब्द विन्यास है।
उदाहरणार्थ, जब हम शिव तांडव स्त्रोत का पाठ करते हैं ,या सुनते हैं तो एक अद्भुत सा रोमांच हमारे शरीर में उत्पन्न होता है। इन शब्दों को विशेष प्रकार से रचा गया है।
मंत्रों के बार-बार एवं शुद्ध उच्चारण, सही समय, एवं सही स्थान पर करने से परम तत्व का साक्षात्कार हो जाता है।
साधक पर भगवान शिव ,जब वह ध्यान, पूजा ,श्रवण, जप करता है तो पूजा को सफल बनाने वाले सभी प्रकार की क्षमता उन्हें प्रदान करते हैं।
सभी प्रकार से आहार और सुख देते हैं ।इसलिए शिवउपासना ही सबसे अच्छा धर्म-कर्म एवं साधन है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि भगवान शिव का जप करें।
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