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भगवान शिव के अवतार की कथा

भगवान शिव के अवतारों का उद्देश्य

भगवान शिव के अनेकों अवतार हुए हैं और सारे अवतार मे एक उद्देश छिपा हुआ है ,एक संदेश है, लोक मंगल की कामना है विश्व के कल्याण की भावना है।

शिव के प्रमुख रूप में महाशिव आते हैं  जिन्हें  प्रकृति पुरुषकहा जाता है। और पराशक्ति माता जोकि संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना करने वाली हैं। वह और महाशिव मिलकर ही संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना करते हैं और उसकी देखभाल करते हैं।

भगवान शिव का नट के रूप मे अवतरित होना

समय-समय पर भगवान शिव अपने अंश अवतार से लोक कल्याण की भावना के लिए पृथ्वी पर  अवतरित हुए है। और उन्होंने लोक कल्याण के निमित्त लीला  की है।



जैसे कि भगवान शिव का नट अवतार ,नट अवतार लेकर के प्रभु ने एक आदर्श स्थापित किया कि किस प्रकार मनुष्य अपने सद्गुणों से व्यक्ति का मन मोह करके अपने  शुद्ध आचरण से वह अपनी मंजिल को प्राप्त कर सकता है।


एक बार की बात है दक्ष प्रजापति ने जब भगवान शिव के नट के रूप में कलाओं का प्रदर्शन देखा, तो वह मंत्रमुग्ध हो गए और कहां कि मैं आपकी इन कलाओं को देखकर बहुत प्रभावित हुआ हूं, और आप अपनी इच्छा अनुसार वर मांग लें।


तब नट  ने मां पार्वती की ओर संकेत किया कि मैं इनको ही अपनी अर्धांगिनी बनाना चाहता ,हूं इस पर दक्ष प्रजापति बोले  लेकिन  एक नट को मै अपनी बच्ची कैसे दे सकता हूं?

यह सुनकर के प्रभु मुस्कुराए और उन्होंने ऐसी -ऐसी ज्ञान की बातें बताइए, जिसे सुनकर के दक्ष प्रजापति आश्चर्य में पड़ गए एवं लगे सोचने की कि यह कोई साधारण नट नहीं है ।


इतने ज्ञान का भंडार इनके अन्दर  है,  हो न हो ,यह जरूर कोई प्रमुख देवता है, क्योंकि साधारण मनुष्य  में इतना ज्ञान असंभव है। 


इस प्रकार  यह देखकर  दक्ष प्रजापति ने नट के रूप में भगवान शिव से प्रार्थना की हे प्रभु ,आप जो भी हो कोई साधारण इंसान नहीं है ,मेरी आपसे हाथ जोड़कर विनती है कि आप अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो ,और मुझे अपने  वास्तविक  रूप के दर्शन कराएं, तो भगवान शिव जी उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाया ,


जिसे देखकर दक्षा प्रजापति बोले हे प्रभु, मैं आपका दर्शन करके धन्य हुआ  मेरे अत्यंत  उत्तम भाग्य है कि आपके दर्शन हुए, साक्षात परब्रह्म जब मेरी बच्ची के साथ विवाह  करना चाहते हैं तो मेरे लिए परम सौभाग्य  होगा। इतना कह कर के उन्होंने पार्वती के विवाह की स्वीकृति दे दी। उसके पश्चात नट रूपी भगवान शिव एवं माता पार्वती का विवाह अत्यंत धूमधाम से संपन्न हुआ।


भगवान शिव का अवधूत के रूप में  अवतार :-

भगवान विष्णु का माता लक्ष्मी के साथ विवाह होना जब सुनिश्चित हुआ तो सबसे ज्यादा खुशी गणेश जी को हुई  श्री गणेश जी ने कहा कि मैं सर्वप्रथम विवाह में जाऊंगा और भगवान विष्णु को मैं स्वयं अपने हाथों से विवाह की पोशाक प्रदान करूंगा, और उसी को पहन कर भगवान विष्णु विवाह करेंगे ,यह सोच कर कि वह विवाह की पोशाक लेकर के अपने मुषक  पर सवार होकर के वह भगवान विष्णु के विवाह स्थल पर गए ।

परंतु उनका मूषक जो सवारी है वह धीमी गति से चलता था, इससे उनके पीछे आने वाले सारे देवता आगे निकल जाते, उन्होंने सोचा  कि अभी देवराज इंद्र आए नहीं हैं। अब मैं क्यों नहीं ऐरावत पर बैठ कर के  उनके साथ चला जाऊंगा तो विवाह में सबसे पहले  शामिल हो जाऊंगा ।

तभी देवराज इंद्र आए और गणेश जी ने उनसे कहा हे देवराज मुझे भी अपने साथ विवाह स्थल पर ले चलिए ,परंतु अहंकार के वश में देवराज इंद्र ने प्रथम पूज्य श्री गणेश जी की बातों की अवहेलना की ,एवं  कहा कि आपका शरीर बहुत भारी है और हमें विलंब हो जाएगा । और वह विवाह स्थल की ओर चल पड़े।


 परम पूज्य श्री गणेश जी का अपमान भगवान शिव से नहीं देखा गया इसलिए उन्होंने अवधूत  रूप धारण करके देवराज इंद्र के रास्ते में जाकर लेट गये ।


देवराज इंद्र को अपने पद का इतना अहंकार हो गया उन्होंने अपने अहंकार का प्रदर्शन सारे देवताओं पर एवं मनुष्य पर करना प्रारंभ कर दिया था।

 यह  भगवान शिव को बर्दाश्त नहीं था उन्होंने जब इंद्र को सबक सिखाने के लिए  ही उनके  रास्ते में लेट गए थे।

देवराज इन्द्र  ने देखा  कि उनके रास्ते में कोई व्यक्ति लेटा हुआ है तो उन्होंने चेतावनी दी जो भी व्यक्ति मेरे रास्ते में लेटा हुआ है मैं देवराज इंद्र हूं मेरा रास्ता खाली कर दे,

परंतु शिव रूपी अवधूत  ने कोई जवाब नहीं दिया ,इस पर इंद्र का क्रोध  बढ़ता चला गया ,और एरावत को आदेश  दिया कि  वह अवधूत को कुचल कर चलता रहे।


परंतु एरावत में ने इंद्र की बात नहीं मानी ,उसकी आंखों में आंसू आ गए, क्योंकि वह समझ गया था जो अवधूत  के रूप में और कोई नहीं  भगवान शिव है ,यह भगवान शिव ही है जो अवधूत के रूप में लेटे हुए हैं।

इसलिए एरावत ने अपने कदम आगे बढ़ाने से रोक दिए एरावत को आगे ना बढ़ता    देखकर   देवराज इंद्र का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया, उन्होंने कहा एरावत तू अपने स्वामी का कहना नहीं मानता है ।


और इन्द्र ने अंतिम चेतावनी दी ,और कहां  कि मेरे मार्ग से हट जाओ लेकिन भगवान शिव लेटे हुए रहे, इतने में इंद्र का गुस्सा काबू में नहीं रहा और उन्होंने अवधूत के ऊपर बज्र का प्रहार कर दिया।

 परंतु यह देख कर के कि  बज्र कुछ नहीं बिगाड़ पाया तब   देवराज को भय हुआ की यह कौन सा चमत्कार  है।


 जिसके ऊपर मेरा बज्र भी काम नहीं कर रहा है इतने में भगवान शिव की आंखें खुल गई एवं क्रोध से उनके तीसरे नेत्र भी खुल गए उसमें  जो क्रोधाग्नि थी वह लगी पीछा करने इंद्र का इतने में इंद्र को भान हो गया था ।


वह तो साक्षात भगवान शिव हैं और वह लगे माफी मांगने परंतु क्रोधाग्नि  ने पीछा नहीं छोड़ा इस प्रकार वह गणेश जी को पुकारने लगे, और भगवान गणेश जी को पुकारते -पुकारते कैलाश चले गए ।


क्रोधाग्नि भी कैलाश पहुंच गई इंद्र भयभीत होकर परम पूज्य श्री गणेश जी के चरणों में गिर गए ,तब जब भगवान शिव ने देखा कि अब देवराज का अहंकार समाप्त हो गया है तो भगवान श्री गणेश जी के निवेदन करने पर उन्होंने देवराज इंद्र को क्षमा कर दिया।

डिस्क्लेमर:-

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